Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 113
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम अर्थ - “हे आत्मन् ! मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थता की उत्तम रीति से अभिलाषा रख, और (उसके द्वारा) समताभाव प्रगट कर । प्रयत्न द्वारा सद्भावना रखकर आत्मलय में बिना किसी रुकावट के (अपने ) मन को क्रीड़ा करा ।" कुर्यान्न कुत्रापि ममत्वभावं, न च प्रभो रत्यरती कषायान् । इहापि सौख्यं लभसेऽप्यनीहो, ११२ ह्यनुत्तरामर्त्यसुखाभमात्मन् ! ॥९॥ अर्थ – “हे समर्थ आत्मा ! किसी भी वस्तु पर ममत्वभाव न रख, इसीप्रकार रति अरति और कषाय भी न कर । जब तू वांछारहित हो जायगा उस समय तो अनुत्तर विमान में रहनेवाले देवताओं का सुख भी तुझे यहीं प्राप्त होगा ।" इति यतिवरशिक्षां योऽवधार्य व्रतस्थ - श्चरणकरणयोगानेकचित्तः श्रयेत । सपदि भवमहाब्धि क्लेशराशि स तीर्त्वा, विलसति शिवसौख्यानन्त्यसायुज्यमाप्य ॥१०॥ अर्थ - "यतिवरों के सम्बन्ध में (उपरोक्तानुसार) बताई हुई शिक्षा जो व्रतधारी (साधु और उपलक्षण से श्रावक) एकाग्रह चित्त से हृदय में धारण करते हैं और चारित्र तथा क्रिया के योगों का पालन करते हैं वे संसारसमुद्र रूप क्लेश के समूह को एकदम तैरकर मोक्ष के अनन्त सुख में तन्मय होकर आनन्द करते हैं । "

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