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अध्यात्मकल्पद्रुम
दुःख का मूल ममता ही है और सुख का मूल समता ही
स्त्रीषु धूलिषु निजे च परे वा,
सम्पदि प्रसरदापदि चात्मन् ! । तत्त्वमेहि समतां ममतामुग,
येन शाश्वतसुखाद्वयमेषि ॥४॥ अर्थ - "स्त्री पर से और धूल पर से, अपने पर से और दूसरों पर से, सम्पत्ति पर से और विस्तृत आपत्ति पर से ममता हटाकर हे आत्मन् ! तू समता रख, जिससे शाश्वत सुख के साथ ऐक्य हो ।" तमेव सेवस्व गुरुं प्रयत्ना,
दधीष्व शास्त्राण्यपि तानि विद्वन् ! । तदेव तत्त्वं परिभावयात्मन् !,
येभ्यो भवेत्साम्यसुधोपभोगः ॥५॥ अर्थ - "उसी गुरु की सेवा कर, उसी शास्त्र का अभ्यास कर और हे आत्मन् ! उसी तत्त्व का तू चिन्तन कर, जिससे तुझे समतारूप अमृत का स्वाद मिल सके।"
समग्रसच्छास्त्रमहार्णवेभ्यः, __ समुद्धृतः साम्यसुधारसोऽयम् । निपीयतां हे विबुधा ! लभध्व
मिहापि मुक्तेः सुखवर्णिकां यत् ॥६॥ अर्थ - "इस समता अमृत का रस बड़े बड़े समग्र