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अध्यात्मकल्पद्रुम
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पञ्चदशः शुमवृत्तिशिक्षोपदेशाधिकारः आवश्यकेष्वातनु यत्नमाप्तो
दितेषु शुद्धेषु तमोऽपहेषु । न हन्त्यभुक्तं हि न चाप्यशुद्धं,
वैद्योक्तमप्यौषधमामयान् यत् ॥१॥ अर्थ - "आप्त पुरुषों द्वारा बतलाये गए शुद्ध और पापों को नाश करने वाले आवश्यकों को करने का यत्न कर, क्योंकि वैद्य की बतलाई हुई औषधि न खाई हो अथवा (खाने पर भी यदि) अशुद्ध हो तो वह रोग का नाश नहीं कर सकती है।" तपांसि तन्याद्विविधानि नित्यं,
मुखे कटून्यायति सुन्दराणि । निध्नन्ति तान्येव कुकर्मराशि, ___रसायनानीव दुरामयान् यत् ॥२॥
अर्थ - "शुरू में कड़वे लगनेवाले परन्तु परिणाम में सुन्दर दोनों प्रकार के तप सदैव करने चाहिये । वे कुकर्म के ढेर को शीघ्र नष्ट कर देते हैं, जिसप्रकार रसायण दुष्ट रोगों को दूर कर देती है।" विशुद्धशीलाङ्गसहस्त्रधारी,
भवानिशं निर्मितयोगसिद्धिः । सहोपसाँस्तनुनिर्ममः सन्,
भजस्व गुप्तीः समितीश्च सम्यक् ॥३॥