________________
अध्यात्मकल्पद्रुम
हो तो इष्ट स्पर्शों का मन से त्याग कर ।" बस्तिसंयममात्रेण, ब्रह्मके के के न बिभ्रते । मन:संयमतो धेहि, धीर ! चेत्तत्फलार्थ्यसि ॥१७॥ अर्थ - " मूत्राशय के संयममात्र से कौन ब्रह्मचर्य धारण नहीं करता है ? हे धीर ! यदि तुझे ब्रह्मचर्य के फल की अभिलाषा हो तो मन का संयम करके ब्रह्मचर्य का पालन कर ।"
१०७
विषयेन्द्रियसंयोगाभावात्के के न संयताः । रागद्वेषमनोयोगाभावाद्ये तु स्तवीमि तान् ॥१८॥ अर्थ - " विषय और इन्द्रियों के संयोग न होने से कौन संयम नहीं पालता है ? परन्तु राग-द्वेष का योग जो मन के साथ नहीं होने देते उन्हीं की मैं तो स्तवना करता हूँ ।" कषायान् संवृणु प्राज्ञ !, नरकं यदसंवरात् । महातपस्विनोप्यापुः, करटोत्करटादयः ॥१९॥
अर्थ - " हे विद्वान् तू कषाय का संवर कर । उसका संवर नहीं करने से करट और उत्करट जैसे महातपस्वी भी नरक को प्राप्त हुए हैं ।"
यस्यास्ति किञ्चिन्न तपोयमादि, ब्रूयात्स यत्तत्तुदतां परान् वा । यस्यास्ति कष्टाप्तमिदं तु किं न,
तभ्रंशभीः संवृणुते स योगान् ॥२०॥ अर्थ - " जिसके पास तपस्या यम आदि कुछ भी नहीं