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अध्यात्मकल्पद्रुम
नाम्नापि यस्येति जनेऽसि पूज्यः,
शुद्धात्ततो नेष्टसुखानि कानि । तत्संयमेऽस्मिन् यतसे मुमुक्षो
ऽनुभूयमानोरुफलेऽपि किं न ? ॥५७॥ अर्थ - "संयम के नाममात्र से जो भी तू लोगों में पूज्य है तो यदि वह सचमुच शुद्ध हो तो कौन सा इष्ट फल तुझे न मिल सके ? जिस संयम के महान् फल प्रत्यक्ष अनुभव में आये हैं उस संयम के लिये हे यति ! तू यत्न क्यों नहीं करता है ?"