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अध्यात्मकल्पद्रुम अर्थ - "मन की प्रवृत्ति न करने मात्र से ही ध्यान नहीं होता है, जैसे कि एकेन्द्रिय आदि में (उनके मन न होने से मन की प्रवृत्ति नहीं है) परन्तु ध्यान करनेवाले प्राणी धर्मध्यान और शुक्लध्यान के कारण मन की स्थिरता के भाजन होते हैं उनकी हम स्तुति करते हैं।"
सार्थं निरर्थकं वा यन्मनः सुध्यानयन्त्रितम् । विरतं दुर्विकल्पेभ्यः पारगांस्तान् स्तुवे यतीन् ॥५॥
अर्थ - "सार्थकता से अथवा निष्फल परिणामवाले प्रयत्नों से भी जिनका मन सुध्यान की ओर लगा रहता है
और जो खराब विकल्पों से दूर रहते हैं ऐसे-संसार से पार पाये हुए यतियों की हम स्तुति करते हैं।"
वचोऽप्रवृत्तिमात्रेण, मौनं के के न बिभ्रति । निरवद्यं वचो येषां, वचोगुप्तांस्तु तान् स्तुवे ॥६॥
अर्थ – “वचन की अप्रवृत्ति मात्र से कौन कौन मौन धारण नहीं करते हैं ? परन्तु हम तो जो वचनगुप्तिवाले प्राणी निरवद्य वचन बोलते हैं उनकी स्तवना करते हैं।"
निरवद्यं वचो ब्रूहि, सावधवचनैर्यतः । प्रयाता नरकं घोरं, वसुराजादयो द्रुतम् ॥७॥
अर्थ - "तू निरवद्य (निष्पाप) वचन बोल, क्योंकि सावध वचन बोलने से वसुराजा आदि घोर नरक में गये हैं।"
इहामुत्र च वैराय, दुर्वाचो नरकाय च । अग्निदग्धाः प्ररोहन्ति, दुर्वाग्दग्घाः पुनर्न हि ॥८॥