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अध्यात्मकल्पद्रुम
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अथ चतुर्दशो मिथ्यात्वादिनिरोधाधिकार: मिथ्यात्वयोगाविरतिप्रमादान्, ___आत्मन् ! सदा संवृणु सौख्यमिच्छन् । असंवृता यद्भवतापमेते,
सुसंवृता मुक्तिरमां च दद्युः ॥१॥ अर्थ - "हे चेतन ! यदि तुझे सुख की अभिलाषा हो तो मिथ्यात्व, योग, अविरति और प्रमाद का संवर कर । यदि इनका संवर न किया जाय तो ये संसार का ताप देते हैं, परन्तु यदि इनका उत्तम प्रकार से संवर किया हो तो ये मोक्षलक्ष्मी देते हैं।"
मनः संवृणु हे विद्वन्नसंवृतमना यतः । याति तन्दुलमत्स्यो द्राक्, सप्तमी नरकावनीम् ॥२॥
अर्थ - "हे विद्वन् ! मन का संवर कर, क्योंकि तन्दुलमत्स्य मन का संवर नहीं करता है तो वह शीघ्र ही सातवीं नरक में जाता है।"
प्रसन्नचन्द्रराजर्षे-मनः प्रसरसंवरौ । नरकस्य शिवस्यापि, हेतुभूतौ क्षणादपि ॥३॥
अर्थ - "क्षणभर में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि के मन की प्रवृत्ति और निवृत्ति अनुक्रम से नरक और मोक्ष का कारण हुई।" मनोऽप्रवृत्तिमात्रेण, ध्यानं नैकेन्द्रियादिषु । धर्म्यशुक्लमनः स्थैर्य-भाजस्तु ध्यायिनः स्तुमः ॥४॥