________________
१००
अध्यात्मकल्पद्रुम
कथमपि समवाप्य बोधिरत्नं,
युगसमिलादिनिदर्शनादुरापम् । कुरु कुरु रिपुवश्यतामगच्छन्,
किमपि हितं लभसे यतोऽर्थितं शम् ? ॥५२॥ अर्थ - "युगसमिला आदि सुप्रसिद्ध दृष्टान्तों के द्वारा महान् कठिनता से प्राप्त होनेवाले बोधिरत्न (समकित) को प्राप्त कर लेने पर शत्रुओं के वशीभूत न होकर कुछ आत्महित कर, जिससे मनोवाञ्छित सुख की प्राप्ति हो।" द्विषस्तित्वमे ते विषयप्रमादा,
असंवृता मानसदेहवाचः । असंयमाः सप्तदशापि हास्या
दयश्च बिभ्यच्चर नित्यमेभ्यः ॥५३॥ __ अर्थ - "तेरे शत्रु-विषय, प्रमाद, निरंकुश मन, शरीर और वचन, सत्तर असंयम के स्थान और हास्यादि ६ हैं। इनसे तू निरन्तर सचेत होकर (भय करके) चलना ।" गुरूनवाप्याप्यपहाय गेह
मधीत्य शास्त्राण्यपि तत्त्ववाञ्चि । निर्वाहचिन्तादिभराद्यभावेऽ!
प्यूषे न किं प्रेत्य हिताय यत्नः ? ॥५४॥ अर्थ - "हे यति ! महान् गुरु की प्राप्ति हुई है, घर