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अध्यात्मकल्पद्रुम रङ्क कोऽपि जनाभिभूतिपदवीं त्यक्त्वा प्रसादाद्गुरोर्वेषं प्राप्य यतेः कथञ्चन कियच्छास्त्रं पदं कोऽपि च । मौखर्यादिवशीकृतर्जुजनतादानार्चनैर्गर्वभागआत्मानं गणेयन्नरेन्द्रमिव धिग्गन्ता द्रुतं दुर्गतौ ॥५०॥ ___अर्थ - "कोई गरीब-रंक पुरुष लोगों के अपमान योग्य स्थान को छोड़कर गुरुमहाराज की कृपा से मुनि का वेश धारण करता है, कुछ शास्त्र का अभ्यास करता है और किसी पदवी का उपार्जन करता है, तब अपनी वाचालता से भद्र लोगों को वशीभूत करके वे रागी लोग जो दान और पूजा करते हैं उससे स्वयं अभिमान करता है और अपने आपको बादशाह समझता है ऐसे को बारम्बार धिक्कार है ! ये शीघ्र ही दुर्गति में जानेवाले हैं (अनन्त द्रव्यलिंग भी ऐसी दशा में व्यवहार करने से निष्फल हुए हैं ।)"
प्राप्यापि चारित्रमिदं दुरापं, __ स्वदोषजैर्यद्विषयप्रमादैः। भवाम्बुधौ धिक् पतितोऽसि भिक्षो !,
हतोऽसि दुःखैस्तदनन्तकालम् ॥५१॥ अर्थ - "अत्यन्त कष्ट से भी कठिनता से प्राप्त होनेवाले चारित्र को ग्रहण करके अपने दोष से उत्पन्न किये विषय और प्रमाद के कारण हे भिक्षु ! तू संसारसमुद्र में गिरता जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप तुझे अनन्तकाल तक दुःख भोगना पड़ेगा।"