Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 92
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम यत्न क्यों नहीं करता है ?" शीतातपाद्यान्न मनागपीह, परीषहांश्चेत्क्षमसे विसोढुम् । कथं ततो नारकगर्भवास ९१ दुःखानि सोढ़ासि भवान्तरे त्वम् ? ॥३०॥ अर्थ - " जबकि तू इस भव में थोड़ा सा शीत, ताप आदि परीषहों को भी सहन करने में अशक्त है तो फिर भवान्तर में नारकी तथा गर्भवास के दुखों को क्योंकर सहन कर सकेगा ?" मुने ! न किं न नश्वरमस्वदेहमृत्पिण्डमेनं सुतपोव्रताद्यैः । निपीड्य भीतिर्भवदुःखराशेर्हित्वात्मसाच्छैवसुखं करोषि ॥३१॥ अर्थ - "हे मुनि ! यह शरीररूप मृतपिण्ड नाशवन्त है और अपना नहीं है, तो फिर उसको उत्तम प्रकार के तप और व्रत आदि से कष्ट पहुँचाकर अनन्त भवो में प्राप्त होनेवाले दुःखों को दूरकर, मोक्षसुख को आत्मसन्मुख क्यों नहीं करता है ?" यदत्र कष्टं चरणस्य पालने, परत्र तिर्यङ्नरकेषु यत्पुनः । तयोर्मिथः सप्रतिपक्षता स्थिता, विशेषदृष्ट्यान्यतरं जहीहि तत् ॥३२॥

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