Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 96
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम अनित्यताद्या भज भावनाः सदा, यतस्व दुःसाध्यगुणेऽपि संयमे । जिघत्सया ते त्वरते ह्ययं यमः, श्रयन् प्रमादान्न भवाद्विभेषि किम् ? ॥४०॥ अर्थ – “अनित्यता आदि सभी भावनाओं को निरन्तर रख, जो संयम के (मूल तथा उत्तर) गुण कठिनता से साधे जा सकते हैं, उनके लिये यत्न कर, यह यम (काल) तुझे हड़प कर जाने को शीघ्रता करता है, तो फिर प्रमाद का आश्रय लेते हुए तू क्यों संसारभ्रमण से नहीं डरता है ?" हतं मनस्ते कुविकल्पजाले र्वचोप्यवद्यैश्च वपुः प्रमादैः । लब्धीश्च सिद्धिश्च तथापि वाञ्छन्, मनोरथैरेव हा हा हतोऽसि ॥४१॥ __ अर्थ - "तेरा मन खराब संकल्पविकल्प से खिन्न है, तेरे वचन असत्य और कठोर भाषा से सने हुए हैं, और तेरा शरीर प्रमाद से भ्रष्ट हुआ है, फिर भी तू लब्धि और सिद्धि की वाञ्छा करता है । सचमुच ! तू (मिथ्या) मनोरथ से खिन्न है।" मनोवशस्ते सुखदुःखसङ्गमो, मनोमिलेद्यैस्तु तदात्मकं भवेत् ।। प्रमादचोरिति वार्यतां मिलच् छीलाङ्गमित्रैरनुषञ्जयानिशम् ॥४२॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118