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अध्यात्मकल्पद्रुम गृह्णासि शय्याहृतिपुस्तकोपधीन्,
सदा परेभ्यस्तपसस्त्वियं स्थितिः । तत्ते प्रमादाद्भरितात्प्रतिग्रहै
ऋर्णमग्नस्य परत्र का गतिः ? ॥१६॥ अर्थ - "तू दूसरों से निवासस्थान (उपाश्रय), आहार, पुस्तक और उपधि ग्रहण करता है । इसके अधिकारी तो तपस्वी लोग (शुद्ध चारित्रवाले) हैं (अर्थात् इनके ग्रहण करने के पात्र तो तपस्वी लोग हैं) तू उन वस्तुओं को ग्रहणकर फिर से प्रमाद के वशीभूत हो जाता है, और बहुत कर्जदार हो जाता है तो फिर परभव में तेरी क्या गति होगी?" न कापि सिद्धिर्न च तेऽतिशायि,
मुने ! कियायोगतप:श्रुतादि । तथाप्यहङ्कारकदर्थितस्त्वं,
ख्यातीच्छया ताम्यसि धिङ्मुधा किम् ॥१७॥ अर्थ – “हे मुनि ! तेरे पास न तो कोई सिद्धि है, न ऊँची प्रकार की कोई क्रिया, योग, तपस्या या ज्ञान, फिर भी अहंकार से कदर्थना प्राप्तकर प्रसिद्धि प्राप्त करने की अभिलाषा से हे अधम ! तू क्यों व्यर्थ परिताप करता है ?" हीनोऽप्यरे भाग्यगुणैर्मुधात्मन् !,
वाञ्छंस्तवार्चाद्यनवाप्नुवश्च । ईय॑न् परेभ्यो लभसेऽतिताप
मिहापि याता कुगतिं परत्र ॥१८॥