Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 62
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम ६१ के अर्थ – “बिना इच्छा के भी जिस प्रकार तू अनेक प्रकार 'दुःख भोगता है उसीप्रकार यदि तू करुणादिक भावना से इच्छापूर्वक थोड़े से भी दुःख सहन कर ले तो भवान्तर में सदैव के लिए सर्व दुःखों से निवृत्ति हो जायगी ।" प्रगल्भसे कर्मसु पापकेष्वरे, यदाशया शर्म न तद्विनानितम् । विभावयंस्तच्च विनश्वरं द्रुतं, बिभेषि किं दुर्गतिदुःखतो न हि ? ॥१९॥ अर्थ - "जिन सुखों की इच्छा से तू पापकर्मों में मूर्खता से तल्लीन हो जाता है वे सुख तो जीवितव्य के बिना किसी काम के नहीं है, और जीवन तो शीघ्र ही नाश होनेवाला है ऐसे जब तू स्वयं जानता है तो फिर हे भाई ! तू दुर्गति के दुःखों से क्यों नहीं डरता है ?" कर्माणि रे जीव ! करोषि तानि, यैस्ते भविन्यो विपदो ह्यनन्ताः । ताभ्यो भियातद्दघसेऽधुना किं ? संभाविताभ्योऽपि भृशाकुलत्वम् ॥२०॥ अर्थ - "हे जीव ! तू ऐसे कर्म करता है, जिसके कारण तुझे भविष्य में अनन्त आपत्तियाँ उठानी पड़ती है, तो फिर संभवित ऐसी विपत्तियों के भय से इस समय अत्यन्त व्याकुल क्यों होता है ?"

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