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अध्यात्मकल्पद्रुम
अर्थ - "यह पुरुष तारने में समर्थ है इस विचार से जिसका आश्रय लिया जाए, उस आश्रय लेनेवाले को जब आश्रय देनेवाला ही डुबानेवाला बन जाय तो फिर इस विषम (अथवा चपल) प्रवाह को वह प्राणी किस प्रकार तैर सकता है ? इसी प्रकार कुगुरु इस प्राणी को संसारसमुद्र से किस प्रकार तार सकता है ?" गजाश्वपोतोक्षरथान् यथेष्ट,
पदाप्तये भद्र निजान् परान् वा । भजन्ति विज्ञाः सुगुणान् भजैवं,
शिवाय शुद्धान् गुरुदेवधर्मान् ॥४॥ अर्थ - "हे भद्र ! जिस प्रकार बुद्धिमान् प्राणी इच्छित स्थान पर पहुँचने के लिये अपने तथा दूसरों के हाथी, घोड़े जहाज, बैल और रथ अच्छे देखकर रख लेते हैं इसीप्रकार मोक्षप्राप्ति के निमित्त तू भी शुद्ध देव-गुरु-धर्म की उपासना कर ।" फलाद् वृथाः स्युः कुगुरूपदेशतः,
कृता हि धर्मार्थमपीह सूद्यमाः । तदृष्टिरागं परिमुच्य भद्र ! हे,
गुरुं विशुद्धं भज चेद्धितार्थ्यसि ॥५॥ अर्थ - "संसारयात्रा में कुगुरु के उपदेश से धर्म के लिए किये हुए बड़े बड़े प्रयास भी फल के रूप में देखे जाएँ तो व्यर्थ जान पड़ते हैं, इसलिये हे भाई ! यदि तू हित