________________
७८
अध्यात्मकल्पद्रुम अथ त्रयोदशो यतिशिक्षोपदेशाधिकारः ते तीर्णा भववारिधि मुनिवरास्तेभ्यो नमस्कुर्महे, येषां नो विषयेषु गृध्यति मनो नो वा कषायैः प्लुतम् । रागद्वेषविमुक् प्रशान्तकलुषं साम्याप्तशर्माद्वयं, नित्यं खेलति चाप्तसंयमगुणाक्रीडे भजद्भावनाः ॥१॥
अर्थ - "जिन महात्माओं का मन इन्द्रियों के विषयो में आसक्त नहीं होता, कषायों से व्याप्त नहीं होता, जो (मन) राग-द्वेष से मुक्त रहता है, जिन्होंने पापकार्यों को शान्त कर दिया है, जिनको समतारूपी अद्वैत सुख प्राप्त हुआ है, और जो भावना करते हुए संयमगुणरूपी उद्यान में सदैव क्रीड़ा करते है - ऐसा जिनका मन हो गया है वे महामुनीश्वर संसार से तैर गये हैं उनको हम नमस्कार करते हैं।" स्वाध्यायमाधित्ससि नो प्रमादैः-,
शुद्धा न गुप्तीः समितीश्च धत्से । तपो द्विधा नार्जसि देहमोहा,
दल्पेऽहि हेतौ दधसे कषायान् ॥२॥ परिषहान्नो सहसे न चोप,
सर्गान्न शीलाङ्गधरोऽपि चासि । तन्मोक्ष्यमाणोऽपि भवाब्धिपारं,
मुने ! कथं यास्यसि वेषमात्रात् ? ॥३॥ अर्थ - "हे मुनि ! तू विकथादि प्रमाद करके स्वाध्याय (सज्झाय ध्यान) करने की इच्छा नहीं करता है, विषयादि