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अध्यात्मकल्पद्रुम
का आधार है उस वृक्ष को काटने के लिये नमस्कारादि से होनेवाला सन्तोषादि प्रमाद इसके (लोकसत्कार आदि) लिये कुल्हाडारुप होता है।" गुणांस्तवाश्रित्य नमन्त्यमी जना,
ददत्युपध्यालयभैक्ष्यशिष्यकान् । विना गुणान् वेषमृषोर्बिभर्षि चेत्,
ततष्ठकानां तव भाविनी गतिः ॥८॥ अर्थ - "ये पुरुष तेरे गुणों को देखकर तेरे सामने झुकते हैं और उपधि, उपाश्रय, आहार और शिष्य तुझे देते हैं। अतएव यदि तू बिना गुण के ही ऋषि (यति) का वेश धारण करता हो तो तेरी दशा ठग के सदृश होगी ।" नाजीविकाप्रणयिनीतनयादिचिन्ता,
नो राजभीश्च भगवत्समयं च वेत्सि । शुद्धे तथापि चरणे यतसे न भिक्षो,
तत्ते परिग्रहभरो नरकार्थमेव ॥९॥ अर्थ - "तुझे आजीविका, स्त्री, पुत्र आदि की चिन्ता नहीं है, राज्य का भय नहीं है और भगवान के सिद्धान्तों को तू जानता है अथवा सिद्धान्त की पुस्तकें तेरे पास हैं, फिर भी हे यति ! यदि तू शुद्ध चारित्र के लिये प्रयत्न नहीं करेगा तो फिर तेरी सभी वस्तुओं का भार (परिग्रह) नरक के लिये ही है।"