Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 83
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम शास्त्रज्ञोऽपि धृतव्रतोऽपि गृहिणी पुत्रादिबन्धोज्झितोऽप्यङ्गी यद्यतते प्रमादवशगो न प्रेत्यसौख्यश्रिये । तन्मोहद्विषतस्त्रिलोकजयिनः काचित्परा दुष्टता, बद्धायुष्कतया स वा नरपशु नूनं गमी दुर्गतौ ॥१०॥ अर्थ - "शास्त्र को जाननेवाला हो, व्रत को ग्रहण किये हुए हो, तथा स्त्री, पुत्र आदि के बन्धनों से मुक्त हो, फिर भी यदि कोई प्राणी प्रमाद के वशीभूत होकर पारलौकिक सुखरूप लक्ष्मी के लिये कुछ भी यत्न नहीं करता है तो जानना चाहिये कि या तो इसमें तीनों लोकों को जीतनेवाले मोह नामक शत्रु की कोई अकथनीय दुष्टता कारणभूत होनी चाहिये अथवा वह नरपशु आगामी भव के आयुष्य का बन्ध हो जाने के कारण अवश्य दुर्गति में जानेवाला है।" उच्चारयस्यनुदिनं न करोमि सर्व, सावद्यमित्यसकृदेतदथो करोषि । नित्यं मृषोक्तिजिनवञ्चनभारितात्तत्, सावद्यतो नरकमेव विभावये ते ॥११॥ अर्थ - "तू सदैव दिन और रात्रि में नौ बार 'करोमि

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