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अध्यात्मकल्पद्रुम और फिर लोगों द्वारा पूजाना चाहता है इससे यह प्रतीत होता है कि तू भोले विश्वास रखनेवाले प्राणियों को धोखा देने के कारण अवश्य नरक में जाएगा । सचमुच तू 'अजागलकर्तरीन्याय' धारण करता है ।" । जानेऽस्ति संयमतपोभिरमीभिरात्म
नस्य प्रतिग्रहभरस्य न निष्क्रयोऽपि । किं दुर्गतौ निपततः शरणं तवास्ते,
सौख्यञ्च दास्यति परत्र किमित्यवेहि ॥६॥ अर्थ - "मेरे विचारानुसार हे आत्मन् ! इस प्रकार के संयम तथा तप से तो (गृहस्थ के पास से लिये हुए पात्र, भोजन आदि) वस्तुओं का पूरा किराया भी नहीं मिल सकता है, तो दुर्गति में गिरते समय तुझे किसका शरण होगा? और परलोक में कौन सुख देगा? इसका तू विचार कर।" किं लोकसत्कृतिनमस्कारणार्चनाद्यै,
रे मुग्ध ! तुष्यसि विनापि विशुद्धयोगान् । कृन्तन् भवान्धुपतने तव यत्प्रमादो,
बोधिद्रुमाश्रयमिमानि करोति पशून् ॥७॥ अर्थ - "तेरे त्रिकरण योग विशुद्ध नहीं हैं फिर भी मनुष्य तेरा आदर-सत्कार करते हैं । तुझे नमस्कार करते हैं अथवा तेरी पूजा सेवा करते हैं, तब हे मूढ़ ! तू क्यों संतोष मानता है ? संसारसमुद्र में गिरते हुए तुझे एकमात्र बोधिवृक्ष