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अध्यात्मकल्पद्रुम
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भविष्य भव में तू उन कुदेव-धर्म-गुरु सेवन के फल को
पाकर चिन्ता करेगा ।"
नाम्र सुसिक्तोऽपि ददाति निम्बकः, पुष्टा रसैर्वन्धगवी पयो न च । दुःस्थो नृपो नैव सुसेवितः श्रियं,
धर्मं शिवं वा कुगुरुर्न संश्रितः ॥८ ॥ अर्थ - " अच्छी तरह से सींचा हुआ नीम कभी आम पैदा नहीं कर सकता है, ( ईख, घी, तेल आदि) रसों को खिलाकर पुष्ट की हुई बंध्या गाय दूध नहीं दे सकती है, ( राज्यभ्रष्टता जैसे ) खराब संयोगोंवाले राजा की खूब सेवा की जाए तो भी वह धन देकर प्रसन्न नहीं कर सकता है, इसी प्रकार कुगुरु का आश्रय लेने से वह शुद्ध धर्म तथा मोक्ष दिला नहीं सकता है ।"
कुलं न जाति: पितरौ गणो वा, विद्या च बन्धुः स्वगुरुर्धनं वा । हिताय जन्तोर्न परं च किञ्चित्, किन्त्वादृताः सद्गुरुदेवधर्माः ॥९॥
अर्थ – “कुल, जाति, माँ-बाप, महाजन, विद्या, सगेसम्बन्धी, कुलगुरु अथवा धन या दूसरी कोई भी वस्तु इस प्राणी के हित के लिये नहीं होती है, परन्तु आदर किये ( आराधन किये) शुद्ध देव, गुरु और धर्म ही (हित करनेवाले हैं) । "