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अध्यात्मकल्पद्रुम
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अर्थ – “प्रमाद करके हे जीव ! तू मनुष्य भव को निरर्थक बना देता है और इसलिये दुःखी होकर बकरा, काकिणी, जलबिन्दु, केरी, तीन बनिये, गाड़ीवान्, भीखारी, आदि के दृष्टान्तों के समान तू बहुत दुःख पायगा ।"
पतङ्गभृङ्गैणखगाहिमीनद्विपद्विपारिप्रमुखाः प्रमादैः ।
शोच्या यथा स्युर्मृतिबन्ध - दुःखै,
चिरायभावी त्वमपीति जन्तो ! ॥ १४ ॥
अर्थ - "पतंग, भ्रमर, हिरण, पक्षी, सर्प, मछली हाथी, सिंह आदि एक एक इन्द्रिय के विषयरूप प्रमाद के वश हो जाने से जिसप्रकार मरण, बंधन आदि दुखों का कष्ट भोगते हैं, इसीप्रकार हे जीव ! तू भी इन्द्रियों के वशीभूत होकर अनन्त काल तक दुख भोगेगा ।" पुरापि पापैः पतितोऽसि दुःखराश पुनर्मूढ ! करोषि तानि ।
मज्जन्महापङ्किलवारिपूरे,
शिला निजे मूर्ध्नि गले च धत्से ॥१५॥ अर्थ - "हे मूढ ! तू पहले भी पापों के कारण दुःखों की राशि में गिरा है और फिर भी उन्हीं का आचरण करता है । अत्यन्त कीचड़वाले भरपूर पानी में गिरते गिरते वास्तव में तू तो अपने गले में और मस्तक पर बड़ा भारी पत्थर बांधता है ?"