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अध्यात्मकल्पद्रुम दुःखी होता है उसी प्रकार शत्रु की निन्दा सुनकर भी दुःखी हो, तब समझना कि तू सचमुच बुद्धिमान है।" स्तवैर्यथा स्वस्य विगर्हणैश्च,
प्रमोदतापौ भजसे तथा चेत् । इमौ परेषामपि तैश्चतुर्ध्व
प्युदासतां वासि ततोऽर्थवेदी ॥६॥ अर्थ – “जिस प्रकार अपनी प्रशंसा तथा निन्दा से अनुक्रम से आनंद तथा खेद होता है उसी प्रकार दूसरों की प्रशंसा तथा निन्दा से आनंद तथा खेद होता हो अथवा इन चारों पर यदि तू उदासीनवृत्ति रखता हो तो तू सच्चा जानकार है।" भवेन्न कोऽपि स्तुतिमात्रतो गुणी,
ख्यात्या न बढ्यापि हितं परत्र च । तदिच्छुरीादिभिरायतिं ततो,
मुधाभिमानग्रहिलो निहंसि किम् ? ॥७॥ अर्थ - "मनुष्यों की स्तुति करने मात्र से कोई गुणी नही हो सकता है, अपितु बहुत ख्याति से आनेवाले भव में भी (परलोक में भी) हित नहीं हो सकता है। इसलिये यदि आगामी भव को तुझे सुधारना है तो व्यर्थ अभिमान के वश होकर इर्ष्या आदि करके आगामी भव को भी क्यों बिगाड़ता है ?"