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अध्यात्मकल्पद्रुम
अर्थ - "तेरे गुणों तथा सुकृत्यों की दूसरे स्तुति करे अथवा सुने अथवा तेरे उत्तम कार्यों को दूसरे देखे, इससे हे चेतन ! तुझे कुछ भी लाभ नहीं होता है । जैसे वृक्ष के मूल को खुला कर देने से वह नहीं फलता है, बल्कि उखड़कर पृथ्वीपर गिर जाता है । (इसीप्रकार उत्तम कार्य भी प्रगट कर देने से पृथ्वी पर गिर जाते हैं अर्थात् शक्तिहीन हो जाते हैं ।) " तपः क्रियावश्यकदानपूजनैः,
शिवं न गन्ता गुणमत्सरी जनः । अपथ्यभोजी न निरामयो भवे, द्रसायनैरप्यतुलैर्यदातुरः ॥११॥ अर्थ - " गुणपर मत्सर करनेवाला प्राणी तपश्चर्या, आवश्यक क्रिया, दान और पूजा से मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है, जिसप्रकार व्याधिग्रस्त पुरुष यदि अपथ्य भोजन करता हो तो वह चाहे जितनी भी रसायण क्यों न खाए परन्तु वह स्वस्थ नहीं हो सकता ।"
मन्त्रप्रभारत्नरसायनादि
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निदर्शनादल्पमपीह शुद्धम् ।
दानार्चनावश्यकपौषधादि,
महाफलं पुण्यमितोऽन्यथान्यत् ॥१२॥
अर्थ – “मंत्र, प्रभा, रत्न, रसायण आदि के दृष्टान्त से (जान पड़ता है कि) दान, पूजा, आवश्यक, पौषध आदि