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अध्यात्मकल्पद्रुम
अर्थ - "जिस प्रकार तुझे अपने गुणों की प्रशंसा अच्छी लगती है इसीप्रकार दूसरो को भी उनके गुणों की प्रशंसा अच्छी लगती है, इसलिये मत्सर छोड़कर उनके गुणों की प्रशंसा भलीभांति करना सीख ले जिससे तुझे भी वह प्राप्त हो सके (अर्थात् तेरे गुणों की भी प्रशंसा हो सके) कारण कि प्रिय वस्तु दिये बिना प्रिय वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती है।" जनेषु गृह्णत्सु गुणान् प्रमोदसे,
ततो भवित्री गुणरिक्तता तव । गृह्णत्सु दोषान् परितप्यसे च चेद्,
भवन्तु दोषास्त्वयि सुस्थिरास्ततः ॥४॥ अर्थ - "दूसरे पुरुषों से अपने गुणों की स्तुति किये जाने पर यदि तू प्रसन्न होगा तो तेरे गुणों की कमी हो जायगी, और यदि पुरुष तेरे दोषों का वर्णन करे उस समय खेद करेगा तो वे दोष अवश्य तेरे अन्दर निश्चल-दृढ़ हो जाएगे।" प्रमोदसे स्वस्य यथान्यनिर्मितैः,
स्तवैस्तथा चेत्प्रतिपन्थिनामपि । विगर्हणैः स्वस्य यथोपतप्यसे,
तथा रिपूणामपि चेत्ततोसि वित् ॥५॥ अर्थ – “दूसरे पुरुषों से अपनी प्रशंसा सुनकर तू जिस प्रकार प्रसन्न होता है, उसी प्रकार शत्रु की प्रशंसा सुनकर भी तुझे प्रमोद हो, और जिस प्रकार अपनी निन्दा सुनकर