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अध्यात्मकल्पद्रुम
अथैकादशो धर्मशुद्ध्युपदेशाधिकारः भवेद्भवापायविनाशनाय यः,
तमज्ञधर्मं कलुषीकरोषि किम् ? प्रमादमानोपाधिमत्सरादिभि,
नमिश्रितं ह्यौषधमामयापहम् ॥१॥ अर्थ - "हे मूर्ख ! जो धर्म तेरे संसार सम्बन्धी विडंबना का नाश करनेवाला है उस धर्म को प्रमाद, मान, माया, मत्सर आदि से क्यों मलिन करता है ? तू अपने मन में अच्छी तरह से समझ लेना कि मिश्रित औषधि व्याधियों का नाश नहीं कर सकती है।" शैथिल्यमात्सर्यकदाग्रक्रुधो -
ऽनुतापदम्भाविधिगौरवाणि च । प्रमादमानौ कुगुरुः कुसंगतिः,
श्लाघार्थिता वा सुकृते मला इमे ॥२॥ अर्थ - "सुकृत्यों में इतने पदार्थ मैलरूप हैं शिथिलता, मत्सर, कदाग्रह, क्रोध, अनुताप, दंभ, अविधि, गौरव, प्रमाद, मान, कुगुरु, कुसंग, आत्मप्रशंसा श्रवण की इच्छा, ये सब पुण्यराशि में मैलरूप हैं।" यथा तवेष्टा स्वगुणप्रशंसा,
तथापरेषामिति मत्सरोज्झी । तेषामिमां संतनु यल्लभेथा,
स्तांनेष्टदानाद्धि विनेष्टलाभः ॥३॥