Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 63
________________ ६२ ये पालिता वृद्धिमिताः सहैव, स्निग्धा भृशं स्नेहपदं च ये ते । यमेन तानप्यदयं गृहीतान्, अध्यात्मकल्पद्रुम ज्ञात्वापि किं न त्वरसे हिताय ॥२१॥ अर्थ – “जिनका तेरे साथ पालन-पोषण हुआ और जो बड़े भी तेरे साथ ही साथ हुए, अपितु जो तेरे अत्यन्त स्नेही थे और जो तेरे प्रेमभाव में ये, इनको भी यमराज ने निर्दयतापूर्वक उठा लिया है ऐसा समझकर भी तू स्वहित साधननिमित्त शीघ्रता क्यों नहीं करता है ?" यैः क्लिश्यसे त्वं धनबन्ध्वपत्यः, यशः प्रभुत्वादिभिराशयस्थैः । कियानिह प्रेत्य च तैर्गुणास्ते, साध्यः किमायुश्चविचारयैवम् ॥२२॥ अर्थ – “कल्पित धन, सगे, पुत्र, यश, प्रभुत्व आदि से (आदि के लिये ) तू दुःख उठाता है, परन्तु तू विचार कर कि इस भव में और परभव में इनसे कितना लाभ उठा सकता है और तेरा आयुष्य कितना है ?" किमु मुह्यसि गत्वरैः पृथक्, कृपणैर्बन्धुवपुः परिग्रहैः । विमृशस्व हितोपयोगिनोऽवसरेऽस्मिन् परलोकपान्थरे ! ॥२३॥ अर्थ - " हे परलोक जानेवाले पथिक ! अलग अलग जानेवाले और तुच्छ ऐसे बंधु, शरीर और पैसों से तू क्यों मोह करता है ? इस समय तेरे सुख में वृद्धि करनेवाले वास्तविक उपाय क्या हैं, उनका ही विचार कर ।"

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