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अध्यात्मकल्पद्रुम ___ अर्थ - "मैं विद्वान् हूँ, मैं सर्व लब्धिवाला हूँ, मैं राजा हूँ, मैं दानेश्वरी हूँ, मैं अद्भुत गुणवाला हूँ, मैं बड़ा हूँ ऐसे ऐसे अहंकारों के वशीभूत होकर तू संतोष धारण करता है, परन्तु परभव में होनेवाली लघुता का तू क्यों विचार नहीं करता हैं ?" वेत्सि स्वरूपफलसाधनबाधनानि,
धर्मस्य, तं प्रभवसि स्ववशश्च कर्तुम् । तस्मिन् यतस्व मतिमन्नधुनेत्यमुत्र,
किंचित्त्वया हि नहि सेत्स्यति भोत्स्यते वा ॥६॥ अर्थ - "तू धर्म का स्वरूप, फल, साधन और बाधक को जानता है और तू स्वतंत्रतापूर्वक धर्म करने में समर्थ है। इसलिये तू अभी से (इस भव में ही) उसको करने का प्रयास कर, क्योंकि आगामी भव में तू किसी भी प्रकार की सिद्धि को प्राप्त न कर सकेगा अथवा न जान सकेगा।" धर्मस्यावसरोऽस्ति पुद्गलपरावर्तेरनन्तैस्त्वायातःसंप्रति जीव ! हे प्रसहतो दुःखान्यनन्तान्ययम् । स्वल्पाहः पुनरेष दुर्लभतमश्चास्मिन् यतस्वाहतो, धर्मं कर्तुमिमं विना हि नहि ते दुःखक्षयःकर्हिचित् ॥७॥
अर्थ - "हे चेतन ! अनेक प्रकार से अनेक दुःख सहन करते करते अनन्त पुद्गलपरावर्तन करने के पश्चात् अब तुझे यह धर्म करने का अवसर प्राप्त हुआ है, यह भी अल्पकाल के लिये है, और बार बार ऐसा अवसर प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है, अतः धर्म करने का प्रयास कर । इसके बिना तेरे