Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 56
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम त्वमेव मोग्धा मतिमांस्त्वमात्मन्, नेष्टाप्यनेष्टा सुखदुःखयोस्त्वम् । दाता च भोक्ता च तयोस्त्वमेव, तच्चेष्टसे किं न यथा हिताप्तिः ॥३॥ अर्थ - "हे आत्मन् ! तू ही मुग्ध (अज्ञानी) है और तू ही ज्ञानी है, सुख की अभिलाषा करनेवाला और दुःख का द्वेष करनेवाला भी तू ही है और सुख-दुःख को देनेवाला तथा भोगनेवाला भी तू ही है, तो फिर स्वहित की प्राप्ति के निमित्त प्रयास क्यों नहीं करता है ?" । कस्ते निरञ्जन ! चिरं जनरञ्जनेन, धीमन् ! गुणोऽस्ति परमार्थदृशोति पश्य । तं रञ्जयाशु विशदैश्चरितैर्भवाब्धौ, यस्त्वां पतन्तमबलं परिपातुमीष्टे ॥४॥ __ अर्थ - "हे निर्लेप ! हे बुद्धिमान् ! लाखों बार जनरंजन करने से तुझे कौन-सा गुण प्राप्त होगा उसको परमार्थदृष्टि से तू देख, और विशुद्ध आचरण द्वारा तू तो उसको (धर्म को) रंजन कर, जो निर्बल और संसारसमुद्र में पड़ता हुआ तेरी आत्मा का रक्षण करने को शक्तिमान हो सके।" विद्वानहं सकललब्धिरहं नृपोऽहं, दाताहमद्भुतगुणोऽहमहं गरीयान् । इत्याद्यहङ्कृतिवशात्परितोषमेति, नो वेत्सि किं परभवे लघुतां भवित्रीम् ॥५॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118