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अध्यात्मकल्पद्रुम
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अथ षष्ठो विषयप्रमादत्यागाधिकारः
अत्यल्पकल्पितसुखाय किमिन्द्रियाथैस्त्वं मुह्यसि प्रतिपदं प्रचुरप्रमादः । एते क्षिपन्ति गहने भवभीमकक्षे, जन्तून्न यत्र सुलभा शिवमार्गदृष्टिः ॥ १ ॥ अर्थ - "बहुत थोड़े और वह भी माने हुए (कल्पित) सुख के लिये तू प्रमादवान् होकर बारंबार इन्द्रियों के विषय में मोह क्यों करता है ? ये विषय प्राणी को संसाररूपी भयंकर गहन वन में फेंक देते हैं, जहाँ से मोक्ष मार्ग का दर्शन भी इस जीव को सुलभ नहीं है ।" आपातरम्ये परिणामदुःखे,
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सुखे कथं वैषयिके रतोऽसि ? |
जड़ोऽपि कार्यं रचयन् हितार्थी,
करोति विद्वन् यदुदर्कतर्कम् ॥२॥ अर्थ - "एकमात्र भोगते समय सुन्दर जान पड़नेवाले किन्तु परिणाम में दुःख देनेवाले विषयसुख में तू क्यों कर आसक्त हुआ है ? हे निपुण ! स्वहित अभिलाषी मूर्ख पुरुष भी कार्य के परिणाम का तो विचार करता ही है । " यदिन्द्रियार्थैरिह शर्म बिन्दव
द्यदर्णवत्स्वः शिवगं परत्र य ।
तयोर्मिथः सप्रतिपक्षता कृतिन्, विशेषदृष्ट्यन्यतरद् गृहाण तत् ॥३॥