Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 30
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम वध्यस्य चौरस्य यथा पशोर्वा, संप्राप्यमाणस्य पदं वधस्य । शनैः शनैरेति मृतिः समीपं, तथाखिलस्येति कथं प्रमादः ? ॥ ६ ॥ अर्थ - "फांसी की सजा पानेवाले चोर के अथवा वध करने के स्थान पर ले जानेवाल पशु की मृत्यु धीरे धीरे समीप आती जाती है, इसीप्रकार सबकी मृत्यु समीप आती रहती है, तो फिर प्रमाद क्यों कर होता ?" बिभेषि जन्तो ! यदि दुःख राशे, स्तदिन्द्रियार्थेषु रतिं कृथा मा । तदुद्भवं नश्यति शर्म यद्राक्, नाशे च तस्य ध्रुवमेव दुःखम् ॥७॥ २९ अर्थ - " हे प्राणी ! यदि तुझे दुःखों से भय है तो इन्द्रियों के विषयों में असक्त क्यों होता है ? उन (विषयों) से उत्पन्न हुआ सुख तो शीघ्र ही नाश होनेवाला है तथा उसके नष्ट हो जाने पर बहुत समय तक दुःख का होना भी निश्चित ही है ।" मृतः किमुप्रेतपतिर्दुरामया, गताः क्षयं किं नरकाश्च मुद्रिताः । ध्रुवाः किमायुर्धनदेहबंधवः, सकौतुको यद्विषयौर्विमुह्यसि ॥८ ॥

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