Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 36
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम होनेवाले सभी कष्टों के दाता कर्मों को हरनेवाले (उपसर्गों, परिषहों आदि) जो तेरे वास्तविक हितेच्छु है किन्तु बाह्य दृष्टि से जो तुझे शत्रु जान पड़ते हैं उनपर क्रोध कर।" अधीत्यनुष्ठानतपःशमाद्यान्, धर्मान् विचित्रान् विदधत्समायान् । न लप्स्यसे तत्फलमात्मदेह क्लेशाधिकं तांश्च भवान्तरेषु ॥११॥ अर्थ - "शास्त्राभ्यास, धर्मानुष्ठान, तपस्या, शम आदि अनेक धर्मों अथवा धर्मकार्यों को माया के साथ करता है, जिससे तेरे शरीर को क्लेश होने के उपरान्त भवान्तर में भी अन्य कोई फल नहीं मिल सकता है और वह धर्म भी भवान्तर में मिलना कठिन है।" सुखाय धत्से यदि लोभमात्मनो, ज्ञानादिरत्नत्रितये विधेहि तत् । दुःखाय चेदत्र परत्र वा कृतिन्, परिग्रहे तद्वहिरान्तरेऽपि च ॥१२॥ अर्थ - "हे पण्डित ! यदि तू अपने सुख के निमित्त लोभ रखता हो तो ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप तीन रत्नों की प्राप्ति निमित्त लोभ कर और यदि इस भव तथा परभव में दुःख मिलने के निमित्त लोभ रखता हो तो आन्तरिक तथा बाह्य परिग्रह के निमित्त लोभ कर ।"

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