Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 48
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम अथ नवमश्चित्तदमनाधिकारः कुकर्मजालैः कुविकल्पसूत्रजैर्निबध्यगाढं नरकाग्निभिश्चिरम् । विसारवत् पक्ष्यति जीव ! हे मन:कैवर्तकस्त्वामिति मास्य विश्वसी ॥१॥ ४७ अर्थ – “हे चेतन ! मन धीवर ( मछुआरा ) कुविकल्प डोरियों से निर्मित कुकर्म जाल बिछाकर उसमें तुझे मजबूती से बाँध कर अनेकों बार मछली के समान नरकाग्नि में भूनेगा, अतः उनका विश्वास न कर ।" चेतोऽर्थये मयि चिरत्नसख ! प्रसीद, किं दुर्विकल्पनिकरैः क्षिपसे भवे माम् ? बद्धोऽञ्जलिः कुरु कृपां भज सद्विकल्पान्, मैत्रीं कृतार्थय यतो नरकाद्विभेमि ॥२॥ अर्थ - " हे मन ! मेरे दीर्घकाल के मित्र ! मैं प्रार्थना करता हूँ कि तू मेरे ऊपर कृपा कर । दुष्ट संकल्प करके क्यों मुझे संसार में डालता है ? ( तेरे सामने ) मैं हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ हूँ, मेरे ऊपर कृपादृष्टि कर, उत्तम विचार उत्पन्न कर और अपनी दीर्घकाल की मित्रता को साफ कर-कारण कि मैं नरक से डरता हूँ ।"

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