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अध्यात्मकल्पद्रुम
अर्थ - " सात भय, पराभव (अपमान), (धो साहुना है) प्रेमी का वियोग, अप्रिय का संयोग, व्याधियाँ, कष्टप्रद सन्तान आदि के कारण मनुष्यजन्म भी अनेक बार निरस हो जाता है, अतः पुण्य के द्वारा मनुष्यजन्म को मधुर बना ।" इति चतुर्गतिदुःखतती: कृतिन्नतिभयास्त्वमनन्तमनेहसम् । हृदि विभाव्य जिनोक्तकृतान्ततः,
कुरु तथा न यथा स्युरिमास्तव ॥ १५ ॥
अर्थ – “इसप्रकार अनन्तकालपर्यन्त ( सहन की हुई),
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अतिशय भय उत्पन्न करनेवाली चारों गतियों की दुःखराशियों को केवली भगवन्त के द्वारा कहे हुए सिद्धान्तानुसार हृदय में विचार कर हे विद्वन् ! ऐसा कार्य कर जिससे तुझे ये कष्ट फिर से सहन न करने पड़े । " आत्मन् परस्त्वमसि साहसिकः श्रुताक्षैर्यद्भाविनं चिरचतुर्गतिदुःखराशिम् । पश्यन्नपीह न बिभेषि ततो न तस्य,
विच्छित्तये च यतसे विपरीतकारी ॥ १६॥
अर्थ - " हे आत्मन् ! तू तो असीम साहसी है, कारण कि भविष्यकाल में अनेकों बार होनेवाले चार गतियों के दुःखों को तू ज्ञानचक्षुओं से देखता है, फिर भी उनसे नहीं डरता है, अपितु विपरीत आचरण करके उन दुःखों के नाश के निमित्त अल्पमात्र भी प्रयास नहीं करता है ।"
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