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अध्यात्मकल्पद्रुम
अकृच्छ्रसाध्यं मनसो वशीकृतात्,
परं च पुण्यं, न तु यस्य तद्वशम् । स वञ्चितः पुण्यचयैस्तदुद्भवैः, ___ फलैश्च ही ! ही ! हतकः करोतु किम् ? ॥१३॥
अर्थ - "वशीभूत मन से महाउत्तम प्रकार का पुण्य भी बिना कष्ट उठाये ही सिद्ध किया जा सकता है। जिसका मन वश में नहीं होता है उसके पुण्य की राशि भी ठग ली जाती है और उससे होनेवाले फलों में भी ठगा जाता है। (अर्थात् पुण्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है और उससे होनेवाले फलों की प्राप्ति से भी वंचित हो जाता है।) अहो ! अहो ! ऐसा हतभागी जीव बेचारा क्या करे ? (क्या कर सकता है)?" अकारणं यस्य च दुर्विकल्पै
हतं मनः, शास्त्रविदोऽपि नित्यम् । घोरैरधैर्निश्चितनारकायु
म॒त्यौ प्रयाता नरके स नूनम् ॥१४॥ अर्थ - "जिस प्राणी का मन निरर्थक खराब संकल्पों से निरन्तर प्रभाव को प्राप्त होता है वह प्राणी चाहे जितना भी विद्वान् क्यों न हो फिर भी भयंकर पापों के कारण नारकी का निकाचित आयुष्य बांधता है और मृत्यु के मुँह में जाने पर अवश्य नरकागामी होता है।" ।