Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 49
________________ ४८ अध्यात्मकल्पद्रुम स्वर्गापवर्गौ नरकं तथान्त र्मुहूर्तमात्रेण वशावशं यत् । ददाति जन्तोः सततं प्रयत्नात्, __ वशं तदन्तःकरणं कुरुष्व ॥३॥ अर्थ - "वश या अवश मन क्षणभर में स्वर्ग, मोक्ष अथवा नरक अनुक्रम से प्राणी को प्राप्त कराता है, इसलिये यत्न करके उस मन को शीघ्रतया वश में कर ले ।" सुखाय दुःखाय च नैव देवा, न चापि कालः सुहृदोऽरयो वा । भवेत्परं मानसमेव जन्तोः, ____संसारचक्रभ्रमणैकहेतुः ॥४॥ अर्थ - "देवता इस जीव को सुख या दुःख नहीं देते हैं, उसीप्रकार काल भी नहीं, उसीप्रकार मित्र भी नहीं और शत्रु भी नहीं । मनुष्य के संसारचक्र में घूमने का एक मात्र कारण मन ही है।" वशं मनो यस्य समाहितं स्यात्, किं तस्य कार्यं नियमैर्यमैश्च ? । हतं मनो यस्य च दुर्विकल्पैः, किं तस्य कार्यं नियमैर्यमैश्च ? ॥५॥ अर्थ – “जिस प्राणी का मन समाधिवात होकर अपने वशीभूत हो जाता है उसको फिर यम नियम से क्या प्रयोजन? और जिसका मन दुर्विकल्पों से छिन्नभिन्न किया

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