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अध्यात्मकल्पद्रुम
अधीतिमात्रेण फलन्ति नागमाः, समीहितैर्जीवसुखैर्भवान्तरे । स्वनुष्ठितैः किंतु तदीरितैः खरो,
न यत्सिताया वहनश्रमात्सुखी ॥९॥ अर्थ – “एक मात्र अभ्यास से ही आगम भवान्तर में अभिलषित सुख देकर फलदायक नहीं होते हैं, उनमें बताये गए शुभ अनुष्ठानों के करने से आगम फलदायक होते हैं, जिसप्रकार मिश्री के भार को उठाने मात्र से गदहा सुखी नहीं हो सकता है ।"
दुर्गन्धतो यदणुतोऽपि पुरस्य मृत्युरायूंषि सागरमितान्यनुपक्रमाणि । स्पर्शः खरः क्रकचतोऽतितमामितश्च,
दुःखावनन्तगुणितौ भृशशैत्यतापौ ॥१०॥ तीव्रा व्यथाः सुरकृता विविधाश्च यत्रा
क्रन्दारवैः सततमभ्रभृतोऽप्यमुष्मात् । किं भाविनो न नरकात्कुमते बिभेषि, यन्मोदसे क्षणसुखैर्विषयैः कषायी ॥ ११ ॥ अर्थ – “जिस नारकी के दुर्गन्ध के एक सूक्ष्म भाग मात्र से (इस मनुष्यलोक के) नगर की ( इतने नगरनिवासी प्राणियों की) मृत्यु हो जाती है, जहाँ सागरोपम के समान आयुष्य भी निरुपक्रम हो जाता है, जिसका स्पर्श करवत से भी अधिक कर्कश है, जहाँ शीत- धूप का दुःख यहाँ से