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अध्यात्मकल्पद्रुम
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तू क्रोध के मारे लाल लाल हो जाता है, किन्तु पुष्ट अथवा पतले प्रमाद तेरा पुण्यधन लूट लेते हैं वह तो तू जानता भी नहीं है ?"
मृत्योः कोऽपि न रक्षितो न जगतो, दारिद्र्यमुत्रासितं ।
रोगस्तेन नृपादिजा न च भियो, निर्णाशिताः षोडश ॥
विध्वस्ता नरका न नापि सुखिता, धर्मैस्त्रिलोकी सदा ।
तत्को नाम गुणो मदश्च विभुता, का तो स्तुतीच्छा च का ? ॥ २१ ॥
अर्थ - "हे भाई! तूने अभीतक किसी भी प्राणी की मृत्यु से रक्षा नहीं की, तूने जगत की कोई दरिद्रता दूर नहीं की, तूने रोग, चोर, राजा आदि से किये हुए सोलह मोटे भयों का नाश नही किया, तूने किसी नरकगति का नाश नहीं किया और धर्मद्वारा तूने तीन लोकों को सुखी नहीं किये, तब फिर तेरे अन्दर कौन से गुण हैं, जिसके लिये तू मद करता है ? और फिर ऐसा कोई भी कार्य किये बिना तू किससे स्तुति की अभिलाषा रखता है ? (अथवा क्या तेरे गुण और क्या तेरा मद ! इसीप्रकार कैसा तेरा बड़प्पन और कैसा तेरा खुशामद का प्रेम ! !" )