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अध्यात्मकल्पद्रुम
अथाष्टमः शास्त्रगुणाधिकारः
शिलातलाभे हदि ते वहन्ति,
विशन्ति सिद्धान्तरसा न चान्तः । यदत्र नो जीवदयार्द्रता ते,
न भावनाङ्करततिश्च लभ्याः ॥१॥ अर्थ – “शिला की सपाटी समान तेरे हृदय पर होकर सिद्धान्तजल बह जाता है, परन्तु वह तेरे अन्दर प्रवेश नहीं करता है, कारण कि उसमें (तेरे हृदय में) जीवदयारूपी गीलापन नहीं है । इसलिये उसमें भावनारूपी अंकुरों की श्रेणी भी नहीं हो सकती है।" यस्यागमाम्भोदरसैन धौतः,
प्रमादपङ्क स कथं शिवेच्छुः ? रसायनैर्यस्य गदाः क्षता नो,
सुदुर्लभं जीवितमस्य नूनम् ॥२॥ अर्थ - "जिस प्राणी का प्रमादरूप कीचड़ सिद्धान्त रूपी वर्षा के जलप्रवाह से नहीं धोया जा सकता वह किस प्रकार मुमुक्षु (मोक्षप्राप्ति का अभिलाषी) हो सकता है ? वस्तुतः, रसायण से भी जो यदि किसी प्राणी की व्याधियों का अन्त न हो सके तो समझना चाहिये कि उसका जीवित रह ही नहीं सकेगा।"