Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 35
________________ ३४ अध्यात्मकल्पद्रुम अर्थ – इसप्रकार ठीक ठीक विचार करके मान का परित्याग कर और अत्यन्त कष्ट से मिलनेवाले तप का यत्न से रक्षण करके क्षमा करने में शूरवीर पंडित साधु नीच पुरुषों द्वारा किये हुए अपमान को भी प्रसन्नतापूर्वक सहन करते हैं।" पराभिभूत्याल्पिकयापिकुष्य स्यधैरपीमां प्रतिकर्तुमिच्छन् । न वेत्सि तिर्यङ्नरकादिकेषु, तास्तैरनन्तास्त्वतुला भवित्रीः ॥९॥ अर्थ - "साधारण पराभव से भी तू कोप करता है और कितने ही पापकर्मो से उसका वैर लेने की अभिलाषा करता है, परन्तु नारकी, तिर्यंच आदि गतियों में जो बेहद अतुल परकृत दुःख होनेवाले हैं उनको तो तू न तो देखता है, न ही विचार करता है ।" । धत्से कृतिन् ! यद्यपकारकेषु, क्रोधंस्ततो धेह्यरिषट्क एव । अथोपकारिष्वपि तद्भवाति कृत्कर्महन्मित्रबहिर्द्विषत्सु ॥१०॥ अर्थ - "हे पण्डित यदि तू अपने अहित करनेवाले के ऊपर क्रोध करना चाहता है तो षट् रिपु (छ: शत्रु-काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष) पर क्रोध कर, और जो यदि तू अपने हित करनेवाले के ऊपर भी क्रोध करना चाहता है तो संसार में

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