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अध्यात्मकल्पद्रुम
होता है और नारकी आदि के दुःख भोगने पड़ते हैं । इस भव में भी मान से वैरविरोध होता है, अतः हे पंडित ! लाभ और हानि का विचार करके इस संसार में जब जब तेरा पराभव हो तब तब तप अथवा मान ( दोनों में से एक) का रक्षण कर । इस संसार में ये दोनों मार्ग हैं ( मान करना अथवा तप करना) । "
श्रुत्वा क्रोशान् यो मुदा पूरितः स्यात्, लोष्टाद्यैर्यश्चाहतो रोमहर्षी ।
यः प्राणान्तेऽप्यन्यदोषं न,
पश्यत्येष श्रेयो द्राग् लभेतैव योगी ॥४॥
अर्थ - "जो आक्रोश (पराभव वचन, ताड़ना) सुनकर आनन्द से प्रफुल्लित हो जाता है, जिसपर पत्थर भी फेंके गये हों तो भी जिसके रोमरोम विकस्वर हो जाते हैं, जो प्राणों के अन्त हो जाने पर भी दूसरों के अवगुणों की ओर ध्यान नहीं देता है, वही योगी है और वह शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है ।"
को गुणस्तव कदा च कषायैर्निर्ममे, भजसि नित्यमिमान् यत् ।
किं न पश्यसि च दोषममीषां ?
तापमत्र नरकं च परत्र ॥५॥
अर्थ - "कषायों ने तेरा कौन सा गुण (हित) किया ? वह गुण (हित) कब किया कि तू हमेशा उनकी सेवा करता