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अध्यात्मकल्पद्रुम
अर्थ "जिस नश्वर शरीर से परोपकार, तप, जपरूप फल नहीं होते हैं उस शरीरवाला प्राणी थोड़े दिनों के लिये किराये पर लिये हुए घररूपी मिट्टी के पिण्ड पर मोह कर क्या फल पायगा ?"
मृत्पिण्डरूपेण विनश्वरेण, जुगुप्सनीयेन गदालयेन ।
देहेन चेदात्महितं सुसाधं,
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धर्मन्न किं तद्यतसेऽत्र मूढ ? ॥८॥
अर्थ – “मिट्टी के पिण्डरूप, नश्वर, दुर्गन्ध और रोग के घरवाले शरीर से जब धर्म करके तेरा स्वहित भली प्रकार सिद्ध किया जा सकता है तो फिर हे मूढ ! इसके लिये यत्न क्यों नहीं करता है ?"