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अध्यात्मकल्पद्रुम
चेद्वाञ्छसीदमवितुं परलोकदुःख
भीत्या ततो न करुषे किम पण्यमेव?। शक्यं न रक्षितुमिदं हि च दुःखभीति,
पुण्यं विना क्षयमुपैति न वज्रिणोऽपि ॥३॥ अर्थ – “यदि तू अपने शरीर को परलोक में होनेवाले दुःखों से बचाना चाहता है तो पुण्य क्यों नहीं करता ? इस शरीर की किसी भी प्रकार से रक्षा नहीं की जा सकती, इन्द्र जैसे को भी पुण्य के बिना दुःख का भय नष्ट नहीं होता।" देहे विमुह्य कुरुषे किमघं न वेत्सि,
देहस्थ एव भजसे भवदुःखजालम् । लोहाश्रितो हि सहते घनघातमग्नि
र्बाधा न तेऽस्य च नभोवदनाश्रयत्वे ॥४॥ अर्थ - "शरीर पर मोह करके तू पाप करता है, किन्तु तुझे यह पता नहीं है कि संसारसमुद्र में जो तू दुःख भोगता है वह शरीर में रहने के कारण ही भोगता है। अग्नि जब तक लोहे में रहता है तब तक ही हथौड़े (धन) की चोट को सहता है, इस लिये जब तू आकाश के समान आश्रयरहित हो जाएगा तो तुझे अथवा अग्नि को कुछ भी कष्ट न होगा।"
दुष्टः कर्मविपाकभूपतिवशः कायाह्वयः कर्मकृत्, बद्ध्वा कर्मगुणैर्हृषीकचषकैः पीतप्रमादासवम् । कृत्वा नारकचारकापदुचितं त्वां प्राप्य चाशुच्छलं, गन्तेति स्वहिताय संयमभरं तं बाहयाल्पं ददत् ॥५॥