Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 24
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम अथ पञ्चमो देहममत्वमोचनाधिकारः पुष्णासि यं देहमघान्यचिन्तयं स्तवोपकारं कमयं विधास्यति । कर्माणि कुर्वन्निति चिन्तयायतिं, जगत्ययं वञ्चयते हि धूर्तराट् ॥१॥ अर्थ - "पाप का विचार न करके जिस शरीर का तू पोषण करता है वह शरीर तेरा क्या उपकार करेगा ? (अतः उस शरीर के लिये हिंसादिक) कर्मो को करते समय भविष्य का विचार कर । यह शरीररूपी धूर्तराज प्राणी को संसार में दुःख देता है।" कारागृहाद्बहुविधाशुचितादिदुःखा निर्गन्तुमिच्छति जडोऽपि हि तद्विभिद्य । क्षिप्तस्ततोऽधिकतरे वपुषि स्वकर्म वातेन तद्दृढयितुं यतसे किमात्मन् ? ॥२॥ अर्थ - "जो मूर्ख प्राणी होते हैं वे भी अनेक अशुचि आदि दुःखों से भरे हुए बन्दीखाने को तोड़कर बाहर भागजाने की अभिलाषा करते हैं। अपने कर्मो द्वारा तू उससे भी अधिक सख्त शरीररूपी बन्दीखाने में डाला गया है, लेकिन फिर भी तू तो उस बन्दीखाने को और भी अधिक मजबूत करने का प्रयत्न करता है।"

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