Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 15
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम बुद्धि से व्याकुल होकर जिनके लिये तू शोक करता है उन्हीं के द्वारा तू कईबार सताया गया है और वे भी तुझसे कईबार सताये गये हैं।" ॥३२॥ त्रातुं न शक्या भवदुःखतो ये, __त्वया न ये त्वामपि पातुमीशाः । ममत्वमेतेषु दधन्मुधात्मन्, पदे पदे किं शुचमेषि मूढ़ ! ॥३३॥ अर्थ - "जिन स्नेहियों को तू भवदुःख से बचाने में अशक्त है और जो तुझे बचाने में असमर्थ हैं उनपर झूठा मोह रखकर हे मूढ़ आत्मन् ! तू पग पग पर क्यों शोक का अनुभव करता है ?" ॥३३॥ सचेतनाः पुद्गलपिंडजीवा, अर्थाः परे चाणुमया द्वयेऽपि । दधत्यनंतान् परिणामभावांस्तत्तेषु कस्त्वर्हति रागरोषौ ॥३४॥ अर्थ - "पुद्गल पिंड और अधिष्ठित जीव-सचेत पदार्थ हैं और परमाणुमय अर्थ (पैसा) आदि अचेत पदार्थ हैं। इन दोनों प्रकार के पदार्थो में अनेक प्रकार के पर्यायभाव-पलटभाव आते रहते हैं, इससे उनपर राग-द्वेष करने के योग्य कौन है ? ॥३४॥"

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