Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 17
________________ १६ अध्यात्मकल्पद्रुम दुर्गन्धित वस्तुओं को देखकर तू नाक बंद करके घृणा करता है, तो फिर उसीप्रकार दुर्गन्ध से भरे हुए स्त्रियों के शरीर की तू क्यों अभिलाषा करता है ?" अमेध्यमांसास्त्रवसात्मकानि नारीशरीराणि निषेवमाणाः । इहाप्यपत्यद्रविणादिचिंतातापान् परत्रेग्रति दुर्गतीश्च ॥४॥ अर्थ – “विष्टा, मांस, रुधिर और चर्बी आदि से भरे हुए स्त्रियों के शरीर का सेवन करनेवाले प्राणी इस भव में भी पुत्र और पैसा आदि चिंताओं का ताप भोगते हैं और परभव में दुर्गति को प्राप्त होते हैं ।" अंगेषु येषु परिमुह्यति कामिनीनां, चेतः प्रसीद विश च क्षणमन्तरेषाम् । सम्यक् समीक्ष्य विरमाशुचिपिण्डकेभ्यस्तेभ्यश्च शुच्यशुचिवस्तुविचारमिच्छत् ॥५॥ अर्थ - "हे चित्त ! तू स्त्रियों के शरीर पर मोह करता है, लेकिन तू (अस्वस्था छोड़कर) प्रसन्न हो और जिन अंगों पर मोह करता है उनमें प्रवेश कर । तू पवित्र और अपवित्र वस्तु के विचार (विवेक) की इच्छा रखता है, उससे अच्छी तरह विचार करके उस अशुचि के ढेर से छूटकारा प्राप्त कर ।" विमुह्यसि स्मेरदृशः सुमुख्या, मुखेक्षणादीन्यभिवीक्षमाणः । समीक्षसे नो नरकेषु तेषु, मोहोद्भवा भाविकदर्थनास्ताः ॥६॥ अर्थ - " विकसित नयनोंवाली और सुन्दर मुखवाली स्त्रियों के नेत्र, मुख आदि को देखकर तू मोह करता है,

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