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जैसे विवेकज्ञान से रहित बालक अपने बाल भावके कारण कूदता हुआ आकाशको भी मापनेके लिये तैयार हो जाता है, उसी प्रकार हे प्रभु ! आपके आगे आपके ज्ञानादि अनन्त गुणोंके गान करनेके लिये में तप्तर हुआ हूँ। हे करुणाकर ! मेरी धृष्टताको आप क्षमा करना ॥४॥ स्पशों मणिर्नयति चेन्निज-संनिधानात्
लोहं हिरण्य-पदवी-मिति नात्र चित्रम् ।, किन्तु त्वदीय मनुचिन्तन-मेव दूरात्,
साम्यं तनोति तव सिद्धिपदे स्थितस्य ॥५॥
(૫) જેમ પારસમણિના રપર્શથી લેખંડ સેનું બને છે તેમાં આશ્ચર્ય નથી. પણ આપ