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સંતાષ મેળવતા નથી ! અર્થાત્ સર્વ જીવા શાંતિ અનુભવે છે.
हे प्रभु ! चन्द्रमाके समान निर्मल, कल्पवृक्ष और चिन्तामाणिके समान इच्छाओं की पूर्ति करने वाले, अत एव मनुष्योंके मनको परितुष्ट करने वाले जो आपके ज्ञानादिक गुण है उनका भक्तिभावपूर्वक स्मरण कर कौन भव्य जीव सन्तुष्ट नहीं होता : अर्थात् सभी सन्तुष्ट होकर अविच्छिन्न सुखशान्तिके भागी होते हैं ॥ २५ ॥ चिन्तामणिः सुरतरु- र्निधय-स्तथैव,
तेभ्यः सुखं क्षणिक - नश्वर - माप्नुवन्ति । त्वत्सेविनो भवि—जना ध्रुब - नित्य - सौख्य,
तस्मादितो-प्यधिकतां समुपैषि नाथ ! ॥