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हे भगवन् ! आपकी देशना समस्त जीवोंकी अपनी अपनी भाषामें परिणत होजाती हैं। वह अमृतके समान मधुर और आकर्षक है, कल्याणकारिणी हैं, सिद्धि और शान्ति आदि अनुपम गुणरत्नोंका देनेवाली है, तथा संपूर्ण कुशलको देनेवाली है ॥३७॥ गोक्षीर-नीर-शशि-कुन्द-तुषार-हार-,
शुक्ल-वियद्-विलसितैः-शुभ--चामरौधैः । ध्यानं सितं तव विभो ! विनिवेद्यते यत् , सर्वज्ञता तदनु कर्म-समूल-नाशः ॥३८॥
(3८) में प्रभु ! ॥यनु , निर्माण પાણી, ચંદ્ર, કુન્દ પુષ્પ, ઝાકળ અને મોતીના હાર સમાન ઉજજવળ, જે સફેદ ચામર