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જાણ કરે છે. આ બધું પ્રભુના પુણ્યપ્રભાવથી થાય છે.
भगवान् जिनेन्द्र देवका जहाँ समवसरण होता है वहाँ पर व्यन्तरदेव, संवर्तकवायु वैक्रिय करके चारों तरफ योजन मण्डल क्षेत्रको पहलेपहल वहांका कूड़ा-कचरा निकालकर साफ करते हैं, फिर वहां प्रासुक (अचित) पुष्प और अचित जलकी वृष्टि करते हैं, सोने के कंगूरों से शोभित, जगमगता हुआ पहला चान्दीका गढ बनाते हैं, रन्नोंके कंगूरों शोभित सोनेका दूसरा गढ बनाते हैं, और मणिमय कंगूरों से सुशोभित, प्रकाशवान् तीसरा रत्नोंका गढ बनाते हैं । वहाँ पर प्रभुके चरणोंके समीप चौसठ