Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 7
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
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( ११४२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सेडी
श्रो व्याए किं संखेजाओ एवं चैत्र ३, एवं दाहिणुरायताओ व एवं उड्डमहायताओ वि । लोगागाससेढीओ ं भंते ! दव्या किं संखेजाओ असंखेजाओ ताओ ?, गोयमा ! नो संखे जाओ असंखे जाओ नो अगंताओ, पाईणपडीणायताओ गं भंते ! लोगागाससेढीश्रो दव्वट्टयाए किं संखेआओ एवं चेत्र, एवं दाहिणुत्तरायएवं उड्डमहायताओ वि । अलोयागास से डीओ भंते! व्याए किं संखे जाओ, असंखेजाओ अरांताओ ?, गोमा ! नो संखेज्जाओ, नो असंखेज्जाओ, अताओ । एवं पापडीयाययाओ वि एवं दाहिणुत्तराययाश्रो वि एवं महायता वि । सेढीओ गं भंत ! पएसट्टयाए किं संखेज्जाओ जहा दव्ययाए तहा पएसट्टयाए वि० जाव उमहायया विसव्वा अताओ। लोयागास सेढीओ
भंते! पएसड० किं संखेजाओ पुच्छा गोयमा ! सिय संखे० सिय असं० नो, अताओ, एवं पाईणपडीणायताओ दाहिणुत्तरायताओ व एवं चैवं उड्डमहायताओ विनो संखंजाओ असंखे० नो अंताओ || लोग गासडीओ खं भंते ! पएमट्टयाए पुच्छा, गोयमा ! सिय संखेजाओ far असंखे सिय अताओ पाईएपडी गाययाओं भंते ! अलोया पुच्छा, गोयमा ! नो संखेजाओ नो असंखेआओ अंताओ एवं दाहिणुत्तरायताओ वि, उड्डमहायताओ पुच्छा, गोयमा ! सिय संखेजाओ सिय असंखेजाओ सिय अताओ । ( मू० ७२८ ) ।
"
'सेढी ' त्यादि, श्रेणीशब्देन च यद्यपि पङ्किमात्रमुच्यते तथाऽपीद्दाकाशप्रदेशपङ्कयः श्रेणयो ग्राह्याः, तत्र श्रेणयोविवक्षित लोकालोकभेदत्वेन सामान्याः १ तथा ता एव पूर्वापरायताः २ दक्षिणोत्तरायताः ३ ऊर्ध्वाधश्रायताः ४ एवं लोक सम्बन्धिन्योऽलोकसम्बधिन्यश्चेति तत्र सामाये श्रेणीप्रश्न श्राश्रोत्ति सामान्याकाशास्तिकायस्य श्रेणीनां विवक्षितत्वादनन्तास्ताः, लोकाकाशश्रेणीप्रश्न त्वसङ्ख्याता एवं ताः श्रसङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्वाल्लोकाकाशस्य, श्रलोकाकाशश्रेणीप्रश्ने पुनरनन्तास्ताः श्रनन्तप्रदेशात्मकत्वादलोकाकाशस्य । तथा 'लोगागास सेढीओ रंग भंते! पट्टयाए' इत्यादी 'सिय संखेज्जाश्रो सिय अ संखेज्जानो'त्ति श्रस्येयं चूर्णिकारव्याख्या - लोकवृत्तान्निकान्तस्थालोके प्रविष्टस्य दन्तकस्य याः श्रेण्यस्ता द्वित्रादिप्रदेशा श्रपि संभवन्ति तेन ताः सङ्ख्यातप्रदेशा लभ्य
शेषा असङ्ख्यातप्रदेशा लभ्यन्त इति, टीकाकारस्तु साक्षेपपरिहारं चेह प्राह - "परिमंडलं जहन्नं भणियं क जुम्मवट्टियं लोए । तिरियाययसेढीग, संखेजपरसिया कि ? ॥ १ ॥ दो दो दिसासु पक्के कओ य विदिसासु ए. कडजुम्मे । पढमपरिमंडलाश्रो, बुई। किर जाव लोगंतो ॥ २ ॥ इत्यक्षिपः परिदारस्तु - " सया पसज्जद, एवं
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सेदी
लोगस्स न परिमंडलया । वट्टालेद्देण तत्रो, बुड्डी कडजुस्मिया जुत्ता ॥ ३ ॥ "
पू०
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एवं च लोकवृत्तपर्यन्तश्रेणयः संख्यातप्रदेशात्मिका भवन्तीति 'नो श्रताओ' ति लोकप्रदेशानामनन्तत्वाभावात् 'उड्डमहायया श्री " नो
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संखेज्जाश्रो श्रसंखेजाओ' ति यतः उ० ००००००००००० द स्तासामुच्छ्रितानामूर्ध्व लोकान्तादधोलोकान्तेऽधोकान्ता दूदूर्ध्वलोकान्ते प्रतिघातोऽतस्ता असंख्यातप्रदेश एवेति या अप्यधोलोककोरातो ब्रह्मलोकतिर्यग्मध्यप्रान्ताद्वोत्तिष्ठन्ते ता अपि न सख्यातप्रदेशा लभ्यन्ते, अत एव सूत्रवचनादिति । "अलो गागाससेढीश्र णं भंते! पएसडुबाए ' इत्यादि, ' सिय संखेजाश्रो सिय श्रसंखेजाओ' ति यदुक्तं तत्स
प०
लकप्रतरप्रत्यासन्ना ऊर्ध्वाधश्रायता अधोलोकश्रेणीराश्रित्येत्यवसेयं ता हि श्रादिमाः संख्यात प्रदेशास्ततोसंख्यातप्रदेशास्ततः परं त्वनन्तप्रदेशाः तिर्यगायतास्त्वलोक श्रेण्यः प्रदेशतोऽनन्तता एवेति ।
साईयाओ अजयसि० २ अणादीयाओ सपञ्जवसियाश्रो सेडीओ भंते! किं साइयाओ सपञ्जवसियाओ - १, ३ अणादीया अप० ४, १ गोयमा ! नो सादीयाओ सप० नो सादीयाओ अप० णो णादीयाश्रो सप० अणादीयाओ अप० एवं ० जाव उड्ढमहायताओ, लोयागाससे
याओ भंते! किं सादीयाओ सप० पुच्छा, गोयमा ! सादीया सपञ्जवसियाओ नो सादीयाओ अपजवसियाओनो अणादयः सपजव०मो अगादी यात्र अपज० एवं जान उडुमहायताओ । अलोयागाससेढीओ गं भंते ! किं सादीया सप० पुच्छा, गोयमा ! सिय साईयात्रो पञ्जवसियाओ १ सिय साईयाओ अपजवसियाओ २ सियादीया सपञ्जवसियाओ ३ मिय श्राईया अपवसिया ४, पाईणपडीणाययाओ दाहिगुत्तरायताओ य, एवं चेव, नवरं नो सादीयाओ सपञ्जवसियाओ सिय साईयाओ अपजवसियाओ सेसं तं चेत्र, उड्डमहायताओ ० जाव श्रोहियाओ तहेव चउभंगो। सेठीओ णं भंते ! दव्बट्टयाए किं कडजुम्मा तेश्रोयाओ ? जुम्माओ नो कलियोगओ एवं ०जाब उड्डमहायताओ पुच्छा, गोयमा ! कडजुम्माओ नो तेश्रोयाओ नो दावर - लोगागाससेढीओ एवं चेत्र, एवं अलोगागास मेढीओ वि । सेढीओ गं भते ! पएसद्वाए किं कडजुम्माओ पुच्छा एवं चेव एवं ०जाब उड्डमहायताओ। लोगागास सेठी श्रो
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भंते! एसइयाए पुच्छा, गोयमा ! सिय कडजुम्मा* ओ नो तेश्रोयाओ मिय दावरजुम्माश्रो नो कलियोमात्र १ अत्र दीर्घत्वं चिन्त्यम् ।
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