Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 03
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ चरमंत 1141 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 3 चरित्त णिल्लं० जाव गच्छइ, उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेट्ठिल्लं | चरमणिदाहसमय पुं० (चरमनिदाघसमय) / जेष्ठमासपर्यन्ते, जी०३ चरिमंतं एग० जाव गच्छइ, हेविल्लाओ चरिमंताओ उवरिल्लं प्रति०॥ चरिमंतं एगसमएणं गच्छइ / हंता गोयमा ! परमाणुपोग्गलेणं | चरमतित्थयर पुं० (चरमतीर्थकर)। अन्तिमतीर्थकरे, यथाऽवसर्पिण्यां लोगस्स पुरच्छिमिल्लं तं चेव० जाव उवरिल्लं चरिमंतं गच्छइ॥ | ___ महावीरः। स्था०१ ठा०१ उ०। "इमीसे ण" इत्यादि। (उवरिल्ले जहा दसमसए विमला दिसा तहेव / चरमभव त्रि० (चरमभव)। चरम एव भवो यस्य प्राप्तस्तिष्ठति, देवभवो वा निरवसेसं ति) दशमशते यथा विमला दिगुक्ता तथैव रत्नप्रभोपरित- चरमो यस्य सः, चरमभवो भविष्यति यस्य सः। नचरमान्तो वाच्यो निरवशेष यथा भवतीति। स चैवम्-"इमीसे गंभंते ! / अन्तिमभवे, प्रति०। रयणप्यभाए पुढवीए उवरिल्ले चरिमते कि जीवा०? गोयमा ! नो जीवा"।। चरमवण्ण पुं० (चरमवर्ण)। अधमवणे, यथा ब्राह्मणेन क्षत्रियाया जातः एकप्रदेशिकप्रतरात्मकत्वेन तत्र तेषामनवस्थानात्। “जीवादेसा वि, जे | क्षत्रियो भवति इति चरमवर्णव्यपदेशः / आचा०२ श्रु०१ अ०। जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा" सर्वत्र तेषां भावात् / “अहवा / चरमसमय पुं० (चरमसमय) / सयोग्यवस्थान्तिमसमये, नं०। एगिदियदेसाय वेइंदियस्सयदेसे, अहवा एगिदियदेसाय वेइंदियस्सय चरमसमयभवत्थ पुं० (चरमसमयगवस्थ)। चरमसमये भवस्य जीवितस्य देसा, अहवा एगिदिय-देसा य बेंदियाण य देसा 3 / " रत्नप्रभा हि तिष्ठति यः स तथा। आयुषश्चरमसमये स्थिते, भ०७ श०१ उ०। द्वीन्द्रियाणामाश्रयः, ते चैकेन्द्रियापेक्षयाऽतिस्तोकाः, ततश्च चरमाण त्रि० (चरत्) / सेवमाने, स्था०५ ठा०३ उ०। तदुपरितनचरमान्ते तेषां कदाचिद्देशः स्याद्देशा वेति, एवं चरवलय पुं० (चरपलक) / श्रावकरजोहरणरूपे, तत्स्वरूपमागमे न त्रीन्द्रियादिष्वप्यनिन्द्रियान्तेषु तथा-"जीवप्पएसा ते नियमा काप्युलब्धमिति नदर्शितम्। (राजेन्द्रसूरिः) एगिदियपएसा, अहवा एगिदियपएसा वि बेंदियस्स य पएसा 1, अहवा- चरिऊण अव्य० (चरित्वा)। आसेव्येत्यर्थे, आ०म०प्र०। एगिदियपएसा च बेंदियाण य पएसा 2 / " एवं त्रीन्द्रियादिष्वप्यनिन्द्रियान्तेषु चरिगा स्त्री० (चरिका)। परिवाजिकायाम, ओघ०। आ०म०। तथा, "जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-रूविअजीवा य चरित्त न० (च(चा)रित्र ) / 'चर' गतिभक्षणयोरित्यस्य “अर्तिनलूधूअरूविअजीवा या जे रूविअजीवा ते चउव्विहा पण्णत्ता। तं जहा-खंधा सूखनसहचरइनः" / 3 / 2 / 184 / इति इत्रप्रत्ययान्तं चरित्रमिति भवति / जीवा परमाणु पोग्गला / जे अरूविअजीवा ते सत्तविहा पण्णत्ता / तं चरन्त्यनिन्दितमनेनेति / चरित्रम् चारित्रमोहनीयक्षयोपशमे, दश०१ जहा-नो धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिका-यप्पएसा, अ० / आव० / व्य० / 'चर' गतिभक्षणयोः, चरन्ति गच्छन्ति एवं अधम्मत्थिकायस्स वि, आगासत्थिकायस्स वि, अद्धासमए त्ति" अनिन्दितमनेनेति चरित्रम्। “खनसहलूधूचरर्तेः" इति (5 / 2 / 87) अद्धासमायो हि मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्तिनि रत्नप्रभोपरितनचरमान्तेऽ- इत्रप्रत्ययः / चरित्रमेव चारित्रं, किमुक्तं भवति ? अन्यजन्मोपास्त्येवेति। "हिडिल्ले चरिमंते" इत्यादि। यथाऽधश्चरमान्तो लोकस्योक्त त्ताष्ट विधकर्म सञ्च-यापचाय चरणं, सर्वसावद्य योगनिवृत्तिरूप एवं रत्नप्रभापृथिव्या, स चानन्तरोक्त एव / विशेषस्त्वयम् - चारित्रमिति / आ० म०प्र० / चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चारित्रम, लोकाधस्तनचरमान्तेतीन्द्रियादीनां देशभङ्गकत्रयं मध्यमरहितमुक्तमिह अष्टविधकर्म-चयरिक्तीकरणाद् वा चारित्रम्। सर्वविरतिक्रियायाम्, तु रत्नप्रभा धस्तनवरमान्ते पञ्चेन्द्रियाणां परिपूर्णमेव तद्वाच्यं, शेषाणं विशे० / चर्यते मुमुक्षुभिरासेव्यते तदिति, चर्यते वा गम्यते अनेन तु द्वीन्द्रियादीनां मध्यमरहितमेव, यतो रत्नप्रभाऽधस्तनचरमान्ते निर्वताविति चारित्रम्, अथवा चयस्य कर्मणां रिक्तीकरणाचरित्रं, पञ्चेन्द्रियाणां गमागमद्वारेण देशो देशाश्च संभवन्त्यतः पञ्चेन्द्रियाणां निरुक्तन्यायादिति / (स्था०) चारित्रमोहनीयक्षयाद्याविभूते आत्मनो तत्तत्र परिपूर्णमेव भवति, द्वीन्द्रियादीनां तु रत्नप्रभाऽस्तनचरमान्ते विरतिरूपे परिणामे, (स्था०) “एगे चरित्ते" तदेकं वक्ष्यमाणानां मारणान्तिकसमुद्धातेन गतानामपि तत्र देश एव सम्भवति, न देशाः, सामायिका दितद्भेदानां विरतिसामान्यान्तर्भावादेकस्य चैकदा तस्यैकप्रतररूपत्वेन देशानेकत्वाऽहेतु-त्यादिति, तेषां तत्तत्र भावाद्वेति, एतेषां च ज्ञानादीनामयमेव क्रमो, यतिी नाऽज्ञातं श्रद्धीयते, मध्यमरहितमेवेति। अत एवाह-"नवर देसे" इत्यादि। (चत्तारि चरिमंत नाश्रद्धिं तं सम्यगनुष्ठीयत इति। स्था०१०टा०। सूत्र० / चर्यते आसेव्यते त्ति) पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तररूपाः (उवरिमहिडिल्ला जहा रयणप्पभाए अनेन वा, चर्यते गम्यते मोक्ष इतिचारित्रम्। मूलोत्तरगुणकलापे, स्था०२ हेडिल्ले ति) शर्करप्रभाया उपरितनाधस्तनचरमान्तौ रत्नप्रभाऽधस्त- ठा०१ उ01 आश्रवनिरोधे, व्य०१ उ०। अनुष्ठाने, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। नचरमान्तवद्वाच्यौ, द्वीन्द्रियादिषु पूर्वोक्तयुक्ते मध्यमभङ्गरहित, स्था०। अज्ञानोपचितस्य कर्मव्रजस्य रिक्तीकरनणे, नि० चू०१ उ० / पञ्चेन्द्रियेषु तु परिपूर्ण देशभङ्गत्रयं, प्रदेशचिन्तायां तु द्वीन्द्रियादिषु सर्वसंवरे, सूत्र०२ श्रु०१ अ० / चारित्रमोहनीयक्षयक्षयोपशमजे सर्वेष्वाद्यभङ्गकरहितत्वेन शेषभङ्गकद्वयम्, अजीवचिन्तायां तु रूपिणा जीवपरिणामे, भ०८ श०२ उ० / सावद्ययोगनिवृत्तौ, प्रश्न०३ संव० चतुष्कम्, अरूपिणां त्वद्धासमयस्य तत्राभावेन षट्कं वाच्यमिति भावः। द्वार / बाह्यसदनुष्ठाने, रा०। क्रियाचेष्टादिके, उत्त०२८ अ०। भ०१६ श०८ उ०। कुम्भदृष्टान्तेन चत्वारि चरित्राणिचरमकाल पुं० (चरमकाल)। मरणसमये, पं० 204 द्वार। चत्तारि कुंभा पन्नत्ता / तं जहा-भिन्ने, जरिए, परि

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